होली फिर ले के आई है
बचपन की और
लड़कपन की यादें भी ,
जब गुझिया साझी बना करती थीं
और पड़ोसी की कचरी ,
हमारे छत पर माँ के बनाये
पापड़ों के साथ साथ ,
तैयार हुआ करती थीं
बचपन के दोस्त दिल में जोश ,
और दिमाग में शरारतें लिए
आया करते थे ,
और " होली है भाई होली है "
के साथ लड़ाईयां भी ,
प्यार के रंग में रंग जाती थी
और लड़कपन की वो होली ,
जब ठिठोली के लिए
लगाते थे दौड़ एक से दूसरे ,
मोहल्लों में और पाते थे
अनजानों में भी दोस्त ,
और अब मिलतें हैं दोस्त भी
रंग न लगाना ,
की मनुहार के साथ
गोया कि होली कल फिर आ जायेगी ,
अब नहीं सूखतीं कचरियां
साझी छतों पर ,
और गुझियाँ भी बना करती हैं
अकेले कमरों में
बैठा हूँ आज भी ,
इसी उम्मीद में जब कि
फिर होगी साझी होली
तभी कह पाऊंगा
मैं भी सही मायनों में कि
" होली है भाई होली है "
रूपेश
०६/०३/२०१२
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