क्या अज़ब खामोश ये शहर है ?
बुतों के बने इंसानों के घर हैं ,
नफरतो ओ शिकवों की दीवारें हैं जहाँ ,
ऐ गाफिल दिल अब और न रहना यहाँ !
मिले हैं अपने भी जहाँ अजनबी होकर ,
करें काम -ओ-जहाँ की बातें गले लगकर ,
गर पूरे न कर सको अरमान इनके ,
फिर तो मिलते हैं लाखों गिले लेकर !
पीर भी बैठा है जहां भीतर छुपाकर ,
लिए चाहत मुरीदों के सिर कलम लेकर ,
रहता है दिल में जहाँ दोस्त भी दुश्मन बनकर ,
बढे न दो कदम महबूब दावे किये चलेंगे हमसफ़र बनकर !
ख़्वाबों ख्यालों में बसती है दुनिया ऐसी ,
मेरे दिल तूने की तमन्ना जैसी ,
कहाँ से लाएगा वो शहर इस दुनिया में ?
बसती हो जहाँ मोहब्बत बहारों जैसी !
करता है क्यूँ तकरीरें इतनी इस दुनिया से ?
जब ये दुनिया ही नहीं तेरे जैसी ,
वो और लोग और शहर और दुनिया होगी ,
अब नहीं बसती इस दुनिया में कोई बस्ती ऐसी !!
रूपेश
२९/०२/२०१२
सर्वाधिकार सुरक्षित
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