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बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

क्या अज़ब खामोश ये शहर है ?

क्या अज़ब खामोश ये शहर है ?
बुतों के बने इंसानों के घर हैं ,
नफरतो ओ शिकवों  की दीवारें हैं जहाँ , 
ऐ गाफिल दिल अब और न रहना यहाँ !

मिले हैं अपने भी जहाँ अजनबी होकर ,
करें काम -ओ-जहाँ की बातें गले लगकर ,
गर पूरे  न कर सको अरमान इनके ,
फिर तो मिलते हैं लाखों गिले लेकर !

पीर भी बैठा है जहां भीतर छुपाकर ,
लिए चाहत मुरीदों के सिर कलम लेकर ,
रहता है दिल में जहाँ दोस्त भी दुश्मन बनकर ,
बढे  न दो कदम महबूब दावे किये चलेंगे हमसफ़र बनकर !

ख़्वाबों ख्यालों में बसती है दुनिया ऐसी ,
मेरे दिल तूने की तमन्ना जैसी ,
कहाँ से लाएगा वो शहर इस दुनिया में ?
बसती हो जहाँ मोहब्बत बहारों जैसी !

करता है क्यूँ तकरीरें इतनी इस दुनिया से ?
जब ये दुनिया ही नहीं तेरे जैसी ,
वो और लोग और शहर और दुनिया होगी ,
अब नहीं बसती इस दुनिया में कोई बस्ती ऐसी !! 

             रूपेश 
        २९/०२/२०१२ 


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