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शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

पुरुष........

पुरुष का ही है ह्रदय कठोर
है नहीं इसके मन का कोई ठौर ,
क्यों मानती है ये नारी सदा ?
क्या यही है अंतिम सत्य सर्वदा !
पुरुष को कब है पहचाना नारी ने ?
उसको हमेशा निष्ठुर ही माना नारी ने
भावना का प्रकटीकरण पुरुष करता नहीं !
क्या मात्र इस कारण ह्रदय वह रखता नहीं ?
है पुरुष भी भावना से भरा यदि जानती वो
फिर भला क्यों उसे छलिया मानती वो ?
पुरुष ने भी अपना सर्वस्व नारी पे है न्योछावर किया
अपने से पहले मान उसने नारी को है दिया
गर यदि ये सत्य सिद्ध न होता यहाँ
तो सियाराम का जाप क्यों भला होता यहाँ
हाँ हैं कुछ यहाँ रावण भी इन्द्र भी पुरुषों के भेष में
पर क्या हैं नहीं कैकयी और मन्थरा नारी वेश में
सृष्टि की रचना के दोनों समान अंग हैं
फिर क्यों भला दोनों के मोह भंग हैं
यदि जान लें ये बात दोनों एक रूप में
तब न हों विवाद धरा पर इस रूप में
विधाता का भी तभी सम्मान हो पायेगा
जब दोनों द्वारा एक दूजे का मान किया जाएगा !!

रुपेश श्रीवास्तव
०४/०२/२०१२

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