Pages

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

खुशियाँ.......


कल देखा मैंने उसे ,
खुशियों की बरात में
एक दर्द भरा चेहरा लिए ,
यूँ तो इन खुशियों में
कुछ हिस्सा उसका भी था
पर ये भी उसका दर्द कम न कर पायीं ,
मेरे मन ने सवाल पुछा
आखिर क्यों होता है ऐसा ?
एक की खुशियाँ दूसरे को दर्द क्यों दे जाती हैं
क्यों खुशियाँ भी सीमाओं में बंध जाती हैं ?
क्यों नहीं होता ऐसा कि
अनंत व्योम में फैलती ये खुशियाँ ,
प्रकाशित होतीं सभी के हृदयों में ,
सूर्य की रोशनी की तरह ,
किंचित यही है सत्य जीवन का भी
पर क्या यही सत्य स्वीकार करना होगा ?
या इसे बदलने का प्रयास भी करना होगा ,
यदि एक सा छोटा प्रयास भी हम कर पायेंगे ,
तभी इस कटु सत्य को झुठला पायेंगे |

- रूपेश श्रीवास्तव
01 / 12 / 2011



सर्वाधिकार सुरक्षित

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें