क्या सोचा है कभी ?
जब बनते हो तुम बोझ उस पर ,
और बदले में देते हो कुछ रुपये
उसकी संतुष्टि इसी में हो जाती है
और तुम भूल जाते हो ,
क़ि कभी बोझ बने थे उस पर
फिर अपनी गाड़ी के आगे उसे पाते ही
देखते हो उसे ऐसी हिकारत भरी नज़र से
गोया क़ि उसने तुम्हारे आगे आने की हिम्मत कैसे की?
केवल तुम्हें ही है हक उससे आगे जाने का
और वो भी दे देता है तुम्हें रास्ता
क्योंकि उसे पता है क़ि ,
तुम भूल चुके हो उसके अहसान को
और दबा चुके हो अपनी आत्मा को
उन चन्द रुपयों के नीचे
जो तुमने उसे कभी दिए थे
अपने बोझ बन जाने के अहसास को भूल जाने के लिए
क्योंकि उसे पता है
तुम केवल उसके ही नहीं
औरों के अहसानों को भी अब याद नहीं रखते
अपने बेटों के दाखिले की चिंता तुम्हें सताती है
पर अपने बुज़ुर्ग के घुटने का दर्द तुम मह्सूस नहीं कर पाते
और फिर वो तो तुम्हारा कोई नहीं
तुम्हें बाहर खड़ी अपने गाड़ी के भीगने क़ी चिंता सताती है
पर तुम भूल जाते हो घर के उस छत को
जिसके सीलन भरी दीवारों के अन्दर
तुम्हारे बुज़ुर्ग दिन बिताते हैं इस आस में
क़ि आने वाली छुट्टी में तुम घर आओगे
और बदल दोगे इस छत और उनके हाल को भी
क़ि तुम्हें कभी ये अहसास होगा
जो उम्मीदें तुम लगा रहे हो अपने बच्चों से
वही कभी लगायीं थीं उन्होंने भी तुमसे
पर तुम तो अब याद नहीं रखना चाहते अहसानों को
इसीलिए उस रिक्शेवाले के साथ साथ
तुम्हारे बुज़ुर्ग भी देते हैं तुम्हें छूट
इस आदत को बनाये रखने क़ी
ताकि तुम्हारी जिंदगी क़ी गाड़ी यूँ ही
सबसे आगे निकल जाए और
फिर तुम्हें किसी पर बोझ बनने क़ी जरूरत मह्सूस न हो ........
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रुपेश श्रीवास्तव
६/९/२०११ सर्वाधिकार सुरक्षित
Rupesh...ur blog lukss is toooo gudd..... pahale bhi kah chuki hun ur .....poetry is toooo guddd
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