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मंगलवार, 27 जुलाई 2010

हमारे जीवन में romanticism

आज बहुत दिनों के बाद कुछ लिखने का मन हुआ ..................जीवन सामान्यतः जैसा दीखता है वैसा वस्तुतः होता नहीं .........ये विडम्बना ही तो है कि कैशोर्य में जिस जीवन में जीने की हम कल्पना करते हैं युवा होते- होते उसी कल्पना का उपहास करने लग जाते हैं ..........उसे कोरी भावुकता कह कर नज़रंदाज़ करने की कोशिश करते हैं.............बदती आयु कहीं न कहीं हमें उस romanticism से दूर कर देती है जो कि जीवन को देखने का एक निर्दोष नजरिया देती है ............समय क़ी प्रगति कहीं न कहीं हमें यह एहसास कराने लग जाती है कि जीवन विशुध्तः व्यवहार पर ही चलता है भावुकता पे नहीं ......क्या इसे हमें अपनी हार नहीं मानना चाहिए ! कि जिन भावनाओं को लेकर हमने अपने जीवन का आरम्भ किया था आज उन्ही का हमारे जीवन में नामों निशान तक नहीं है...............अगर यही romanticism भगत सिंह के जीवन से निकल जाता तो क्या वह अपनी जान हमारे लिए देते ? या नरेन्द्र को हम विवेकानंद के रूप में जान पाते ? कहीं न कहीं ये उनका जीवन के प्रति romanticism ही था कि उन्होंने वह किया जो कि उनको संतुष्ट करता था ...........अगर आज हम अपने जीवन से संतुष्ट नहीं हैं तो इसका कारण हमारे जीवन में से उसी romanticism का न होना है जिसके होने पर हम आज कि अपेक्षा ज्यादा संतुष्ट थे ............उदारीकरण ने हमारे अन्दर इतनी उदारता भी नहीं छोड़ी है क़ी हम आज किसी दूसरे के बारे में कुछ चिंता कर सकें ..........विशेषतः अगर वह हमारे परिवार से बाहर का हो...............यहाँ तक कि "सर्वे भवन्तु सुखिनः "का भाव भी पूजास्थलों में तभी आता है जब कि हम पहले अपने लिए भगवान् से कुछ मांग नहीं लेते .......ये और बात है कि मंदिर में हम दूसरे के विषय में बुरा नहीं सोचते पर ये भी उतना ही सत्य है कि वहां भी भगवान् के सामने हमारी उदारता अपने लिए ही होती है...............दूसरे के लिए नहीं.....वस्तुतः नरेन्द्र के विवेकानंद बनने और हमारे विवेकानंद बनने में केवल उस एक कम्बल क़ी दूरी होती है जो नरेन्द्र ने ठण्ड से ठिठुरते भिखारी को दे दिया था ............यह नरेन्द्र के उसी romanticism का उदाहरण है जिस कारण उन्हें उसी ठण्ड का अनुभव हुआ था जो कि उस भिखारी को उस वक़्त लग रही थी ..............इसी romanticism ने बाद में उन्हें विवेकानंद के रूप में विख्यात किया .............तो आज की अपनी बात इस आशा से समाप्त कर रहा हूँ... कि .... मैं और आप अपने जीवन के उसी romanticism को एक बार फिर से जीवित करेंगे जिससे कि हम अपने उसी निर्दोष जीवन का फिर से एक बार अनुभव कर सकें जिसे वक़्त के संघर्षों के कारण हमने कहीं एक कोने में छुपा दिया था ...................

नमस्कार ..............

4 टिप्‍पणियां:

  1. पहले तो आपको बहुत बहुत बँधाई ये ब्लॉग लिखने के लिए .
    मे भी कुछ कुछ इसी दौर से गुजर रहा हूँ .
    इसे पढ़ के मुझे दिनकर की कुछ पंक्तियाँ याद आ गयीं .

    धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,
    कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँ-सा।
    कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है,
    मुँह को छिपा तिमिर में क्यों तेज़ रो रहा है?

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  2. आपका ब्लाग देखा अच्छा लगा। आपका यह पाठ पढ़कर इतना कहना चाहूंगा कि हमें महापुरुषों से प्रेरणा तो लेना चाहिए पर उन जैसा बनने की सोचने से अच्छा है अपने व्यक्तित्व के गुणों का प्रवाह सहजता से बहने दें और यही मुझे अपने विकास का एक अच्छा मार्ग दिखता है।
    दीपक भारतदीप

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  3. Dear Rupesh,

    Hindi main typing nahin aati iskeliye maafi office se thaki hui aai to yu hin online ho gayi vishal ke box main mail dekha to padne ka dil kiya Appne jo bhi likha hain woh bahut khoobsoorat hain aur bahut sacha mujhe is baat per fakr hain ki hum aapse prakash ki wajah se jude hye hain i wish ki itna hi acha main likh sakti. Aapke liye kuch bhi kehana kam hain isliye thank you prakash. Vishal & Aamira

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  4. sach kaha. hum sab ki atma ander se kuch kehti hai per hum use sunte hi nahi hain aur dukhi hote hain.

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