यूँ तो प्राणी मात्र में तू अपने को श्रेष्ठ ही कहता है पर अन्यों का कष्ट देख कैसे तू विस्मित रहता है ? युगों युगों से स्वयं को है तू सामर्थ्यवान कहता आया पर दूसरों के योगदान को फिर भी कहाँ कम कर पाया ? तेरे इस क्रम विकास में अन्यों ने भी है योग किया , पर उनके इस त्याग को तूने अपना कह भोग लिया | मिला न होता वृक्ष चक्र कभी तो क्या ये चक्र चल पाता ? अश्व न देता साथ कभी तो क्या तेरा ये जीवन गति पाता ? श्रिन्गियों के योगदान को अभी तक है तू दुहता आया , और प्रकृति के उपादानों को तूने जी भर के अपनाया | फिर भी तेरी इच्छाएं हुई सुरसा मुख सी अपार , इसीलिए अपनों से ही लेने लगा है तू अब बेगार मानव ही मानव का बोझ लिए इस धरती पर अब फिरता है, फिर कैसे तू स्वयं को विधाता की श्रेष्ठ रचना कहता है | मन की संवेदना समझ कर ही है तू मानव कहलाया , फिर तेरे इस सुन्दर मन का विकृत रूप कैसे हो पाया ? यदि इसी प्रकार से तेरा विकास होता रहेगा गतिमान , फिर ईश्वर का दंड निश्चित पायेगा तू सावधान !! स्वयं ईश्वर ने अपने कृत्यों का दंड धरा पर है पाया , फिर कैसे बचेगा इससे तू तो बस उसकी छाया | हाँ कहता ह...
मेरे जीवन के इस छोटे से सफ़र में अब तक जो भी पड़ाव आये हैं ,,,,,,,उन्हीं से मिले अनुभवों को लिखने का प्रयास मैं कर रहा हूँ........अनुभव स्वयं में अच्छे या बुरे नहीं होते.....ये तो हमारी अपेक्षाएं हैं जो उन्हें अच्छा या बुरा सिद्ध कराती हैं......एवं अपेक्षाओं के पैमाने व्यक्तित्वों के अनुसार बदलते रहते हैं.......... अतः निश्चित रूप से मेरे अनुभव मेरे व्यक्तित्व के दर्पण होंगे.....!!! ..........रूपेश .