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दिसंबर, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मानव..........

यूँ तो प्राणी मात्र में तू अपने को श्रेष्ठ ही कहता है पर अन्यों का कष्ट देख कैसे तू विस्मित रहता है ? युगों युगों से स्वयं को है तू सामर्थ्यवान कहता आया पर दूसरों के योगदान को फिर भी कहाँ कम कर पाया ? तेरे इस क्रम विकास में अन्यों ने भी है योग किया , पर उनके इस त्याग को तूने अपना कह भोग लिया | मिला न होता वृक्ष चक्र कभी तो क्या ये चक्र चल पाता ? अश्व न देता साथ कभी तो क्या तेरा ये जीवन गति पाता ? श्रिन्गियों के योगदान को अभी तक है तू दुहता आया , और प्रकृति के उपादानों को तूने जी भर के अपनाया | फिर भी तेरी इच्छाएं हुई सुरसा मुख सी अपार , इसीलिए अपनों से ही लेने लगा है तू अब बेगार मानव ही मानव का बोझ लिए इस धरती पर अब फिरता है, फिर कैसे तू स्वयं को विधाता की श्रेष्ठ रचना कहता है | मन की संवेदना समझ कर ही है तू मानव कहलाया , फिर तेरे इस सुन्दर मन का विकृत रूप कैसे हो पाया ? यदि इसी प्रकार से तेरा विकास होता रहेगा गतिमान , फिर ईश्वर का दंड निश्चित पायेगा तू सावधान !! स्वयं ईश्वर ने अपने कृत्यों का दंड धरा पर है पाया , फिर कैसे बचेगा इससे तू तो बस उसकी छाया | हाँ कहता ह...

खुशियाँ.......

कल देखा मैंने उसे , खुशियों की बरात में एक दर्द भरा चेहरा लिए , यूँ तो इन खुशियों में कुछ हिस्सा उसका भी था पर ये भी उसका दर्द कम न कर पायीं , मेरे मन ने सवाल पुछा आखिर क्यों होता है ऐसा ? एक की खुशियाँ दूसरे को दर्द क्यों दे जाती हैं क्यों खुशियाँ भी सीमाओं में बंध जाती हैं ? क्यों नहीं होता ऐसा कि अनंत व्योम में फैलती ये खुशियाँ , प्रकाशित होतीं सभी के हृदयों में , सूर्य की रोशनी की तरह , किंचित यही है सत्य जीवन का भी पर क्या यही सत्य स्वीकार करना होगा ? या इसे बदलने का प्रयास भी करना होगा , यदि एक सा छोटा प्रयास भी हम कर पायेंगे , तभी इस कटु सत्य को झुठला पायेंगे | - रूपेश श्रीवास्तव 01 / 12 / 2011 सर्वाधिकार सुरक्षित