आज बहुत दिनों के बाद कुछ लिखने का मन हुआ ..................जीवन सामान्यतः जैसा दीखता है वैसा वस्तुतः होता नहीं .........ये विडम्बना ही तो है कि कैशोर्य में जिस जीवन में जीने की हम कल्पना करते हैं युवा होते- होते उसी कल्पना का उपहास करने लग जाते हैं ..........उसे कोरी भावुकता कह कर नज़रंदाज़ करने की कोशिश करते हैं.............बदती आयु कहीं न कहीं हमें उस romanticism से दूर कर देती है जो कि जीवन को देखने का एक निर्दोष नजरिया देती है ............समय क़ी प्रगति कहीं न कहीं हमें यह एहसास कराने लग जाती है कि जीवन विशुध्तः व्यवहार पर ही चलता है भावुकता पे नहीं ......क्या इसे हमें अपनी हार नहीं मानना चाहिए ! कि जिन भावनाओं को लेकर हमने अपने जीवन का आरम्भ किया था आज उन्ही का हमारे जीवन में नामों निशान तक नहीं है...............अगर यही romanticism भगत सिंह के जीवन से निकल जाता तो क्या वह अपनी जान हमारे लिए देते ? या नरेन्द्र को हम विवेकानंद के रूप में जान पाते ? कहीं न कहीं ये उनका जीवन के प्रति romanticism ही था कि उन्होंने वह किया जो कि उनको संतुष्ट करता था ...........अगर आज हम अपने जीवन...
मेरे जीवन के इस छोटे से सफ़र में अब तक जो भी पड़ाव आये हैं ,,,,,,,उन्हीं से मिले अनुभवों को लिखने का प्रयास मैं कर रहा हूँ........अनुभव स्वयं में अच्छे या बुरे नहीं होते.....ये तो हमारी अपेक्षाएं हैं जो उन्हें अच्छा या बुरा सिद्ध कराती हैं......एवं अपेक्षाओं के पैमाने व्यक्तित्वों के अनुसार बदलते रहते हैं.......... अतः निश्चित रूप से मेरे अनुभव मेरे व्यक्तित्व के दर्पण होंगे.....!!! ..........रूपेश .